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Monday 26 October 2015

इस दशहरे........

एक दिन होगा तूँ निर्बल,
मस्तिष्क में होगा नहीं छल,
स्नायु तंत्र क्षीण होगा ,
दृष्टि श्रवण से हीन होगा
चल- फिर नहीं तूँ पाएगा,
अपनों को आँखों से अपनी,
पहचान नहीं तूँ पाएगा,
हाँ,उस दिन तेरी जुबां पर ,
राम नाम ही आएगा ........

हो सके तो खत्म कर दे ,
अभिमान रूपी रावण को ,
सत्य रूपी राम से ........
इस दशहरे........
अनिल कुमार सिंह

ज़िंदगी मैं तुझे बस! इतना ही समझ पाता हूँ.......(II)

.................शेष.....
झूठ के कदमों में पल पल
सत्य मरता कसमें खा कर ,
सत्य को बरबस सुलाते ,
भ्रष्ट कोलाहल सुनाकर ,
झूठ के इन बाज़ारों में
सत्य सा छिप जाता हूँ ,
ज़िंदगी मैं तुझे
बस !इतना ही समझ पाता हूँ .......

ध्येय की ऊंची इमारत
उठती है मुझ को गिरा कर ,
स्वप्न देता हौसले फिर
ज़ख़्मों को सहला सहला कर ,
ध्येय धड़कन के संघर्ष में ,
जीते जी मरा जाता हूँ
ज़िंदगी मैं तुझे
बस! इतना ही समझ पाता हूँ.......
अनिल कुमार सिंह
,

Sunday 11 October 2015

ज़िंदगी मैं तुझे बस ! इतना समझ पाता हूँ

नींद के सपनों मे क्या था
सोचता रह जाता हूँ,
सुबह से शाम तक अनथक,
खोजता रह जाता हूँ ,
रात खाली हाथ लेकर ,
फिर नींद में खो जाता हूँ ,
ज़िंदगी मैं तुझे
बस ! इतना समझ पाता हूँ ।


चैन के सब रास्तों पर
दर्द भीख मांगता है ,
फेर लें नज़रें कहाँ तक
वो हमसे रिश्ता जानता है,
दर्द के साये में हरदम,
दर्द सा, हो जाता हूँ ,
ज़िंदगी मैं तुझे
बस ! इतना ही समझ पाता हूँ ।

अनिल कुमार सिंह

दगाबाज मौसम सियासी हो गया

छल गया बार बार
दाल गेहूं चावल को ,
दगाबाज मौसम सियासी हो गया ...
खेती गृहस्थी छोड़
चलावै है रिक्शा ,
गाँव का निरहुवा नगरवासी हो गया ...

बिजली पिशाचिन भई
झलक दिखलाए जाए ,
जलकल बिन जल के उदासी हो गया ...
खेत में फटी बिवाई
दंड भई जुताई बुवाई ,
मूल पचास बियाज़ पचासी हो गया .....
अनिल कुमार सिंह

फिर पाँच साल बाद आओगे न

ओह!
फिर आ गए,
पाँच साल पहले भी तो तुम आए थे,
मेरी ज़िंदगी को बदलने का
झांसा लेकर......
देख लो ,
ये आज भी वैसी ही है,
हाँ ,तुम जरूर बदल गए,
इन पाँच सालों में ,

देख लों,
तकिये पर तुम्हारे
पिछले झंडे का खोल,
रस्तों के गड्ढे और
उदास बिजली के पोल ,
आज फिर से दोहरा दो
वही मीठे मीठे बोल
और हाँ,
ये भी बताते जाओ,
फिर पाँच साल बाद आओगे न ,
इस बस्ती में तुम्हारे आने से ,
कुछ पल चेहरों के कमल खिलते हैं ........
अनिल कुमार सिंह

रेत की लहरों पर

रेत की लहरें खामोशी से
अब भी सुना करती हैं वही गीत
जो कभी अमावस की रात को
तुम्हारे चेहरे की चाँदनी से लिपटकर
नम हवाओं ने गाये थे .......
कितने बरस गुज़र गए
वो चाँदनी अब वहाँ रोशन नहीं होती ,
मैं अब भी चला जाता हूँ उन रेत की लहरों पर ,
जहां तुम्हारी चन्दन सी खुशबू लिए
हवाएँ वही गीत लिखती हैं ....रेत की लहरों पर...........
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सौ बार जनम लेंगे ------------------

अनिल