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Wednesday 30 December 2015

तेरे ख़त

तन्हाइयों की सिकुड़न जब हद से गुज़रती  है ,
तेरे ख़त , मैं दराज़ों से निकाल लेता हूँ ....
नर्म लिखावट से लिपटे आंसुओं के टुकड़े ,
लबों से लगा कर कुछ प्यास बुझा लेता हूँ ,
महकती है मुहब्बत ख़तों  से आज भी ,  
कि ख़त फूल कभी मुरझाते नहीं हैं ,
हाँ , ये खुद रोते हैं फूट फूटकर ,
कि
ख़त लिखने वाले, अब कभी आते नहीं हैं ........
अनिल

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