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Thursday 11 August 2016

खेल मौत का मौत से पहले रुकता नहीं है

डर ये कैसा? धधक रहा खलिहान तो क्या?
बारूदों के बीज उगाये तुमने ही थे ,
जवां फसल तैयार है आग दूर से सेंको,
न रोको अब खाक की हद तक जल जाने दो,
कि खेल मौत का, मौत से पहले रुकता नहीं.....
अनिल

आखिर कब तक

बंद करो ये खेल मौत का,
पहले तो बस एक मरा था,
क्या उसको जिंदा कर पाओगे?
जाने कितने और मर गये,
खूनी जलसा, आखिर कब तक?

पूछ रहा है तुमसे हिमालय,
पूछ रही झेलम की धारा,
पूछ रही है तुमसे बेकारी,
पूछ रहा है टूटा शिकारा,
पूछ रही बच्चों की शिक्षा,
पूछ रहा वो भूखा बेचारा,
जो रोज कमाता था रोजी,
करता था घर का गुजारा,

कब तक यूं ही बहकाओगे?
अपने मन को बहलाओगे,
तुम्हें यकीं है हमें पता है,
सफल कभी न हो पाओगे.......
फिर क्यों इतना सब , आखिर कब तक?आखिर कब तक ???

अनिल

चलो खुद में समाया जाए

कितनी भी सजाता हूँ तस्वीर जिन्दगी की,
ये गर्द उदासी की परछाई सी रहती है,
ये वक़्त भी दे जाए ना बोझ अहसानों के,
अजनबी लम्हों से मेरी दूरी सी रहती है,
बहुत कठिन है मेरा भीड़ का हिस्सा होना,
हर तरफ भीड़ है, चलो खुद में समाया जाए.....

अनिल

पानी से प्यास बढ़ाता है सावन

टीन की छत पर थिरकती हैं बूंदें ,
जागती हैं रातें अाँखों को मूंदे
रेशमी चादर की लोरी ओ थपकी,
झरोखों से ठण्डी बयारों की झपकी,
छिप गई चाँदनी बादलों से लिपट कर,
गरम सांसों के कोहरे से भरा घर,
अकेले में कितना सताता है सावन,
हाँ, पानी से प्यास बढ़ाता है सावन.....

अनिल